प्रदोष व्रत सम्पूर्ण कथा
गर्गाचार्य जी ने कहा – “हे महामते! आपने भगवान शिव की प्रसन्नता हेतु समस्त प्रदोष व्रतों का वर्णन किया। कृपया अब शनि प्रदोष व्रत की महिमा का वर्णन करें।”
सूतजी ने कहा – “हे ऋषिवर! निश्चय ही भगवान शिव एवं देवी पार्वती के चरण कमलों में आपका अनन्य प्रेम है। अतः मैं आपके समक्ष शनि त्रयोदशी व्रत की विधि का वर्णन करता हूँ, आप ध्यानपूर्वक श्रवण करें।
प्राचीन कथा के अनुसार किसी ग्राम में एक निर्धन ब्राह्मण अपनी पत्नी सहित निवास करता था। एक दिन अपनी निर्धनता एवं दरिद्रता से व्यथित होकर उस ब्राह्मण की पत्नी शाण्डिल्य ऋषि के समक्ष पहुँची तथा उन्हें नमन करते हुये उसने कहा – ‘हे मुनिराज! मैं अत्यन्त दुखी हूँ, मेरे दोनों पुत्र आपकी शरण में हैं। मेरे ज्येष्ठ पुत्र का नाम धर्म है जो कि एक राजपुत्र है तथा कनिष्ठ पुत्र का नाम शुचिव्रत है। हमारे जीवन में घोर दरिद्रता का वास है। हमें नाना प्रकार के कष्टों ने घेर लिया है। हे ऋषिवर! आप ही हमारे दुःख एवं कष्टों का निवारण कर सकते हैं। कृपा करके उत्तम जीवन की प्राप्ति हेतु हमें कोई मार्ग बतायें।’
उस महिला की करुण प्रार्थना सुनकर शाण्डिल्य ऋषि ने कहा – ‘हे पुत्री! अपने दुखों के निवारण हेतु तुम्हें भगवान शिव के प्रदोष व्रत का श्रद्धापूर्वक पालन करना चाहिये।’ ब्राह्मण पत्नी ने पुत्रों सहित प्रदोष व्रत करने का निश्चय किया। कुछ समय उपरान्त प्रदोष का दिन आया तब तीनों ने व्रत करने का सङ्कल्प लिया। एक दिन शुचिव्रत एक तालाब पर स्नान करने हेतु गया तो उसे मार्ग में एक स्वर्ण कलश प्राप्त हुआ जो धन से भरा हुआ था। वह उस कलश को लेकर घर आ गया तथा अपनी माँ से बोला – ‘माँ! देखो मुझे मार्ग में यह धन प्राप्त हुआ है।’ माता ने धन को देखकर भगवान शिव की महिमा का गुणगान किया। माँ ने राजपुत्र धर्म को बुलाया और कहा – ‘पुत्र! भगवान शिव की कृपा से तुम्हारे अनुज को यह धन मार्ग में प्राप्त हुआ है, अतः इसे प्रभु का प्रसाद समझकर तुम दोनों आधा-आधा बाँट लो।’
माता के वचन सुनकर राजपुत्र श्री शिव-पार्वती का स्मरण करते हुये बोला – ‘माते! यह धन आपके पुत्र का ही है, इस पर मेरा कोई अधिकार नहीं है। भगवान शिव एवं माता पार्वती जब मुझे कुछ देंगे तब मैं उसे स्वीकार कर लूँगा।’ यह कहकर वह राजपुत्र नित्य की भाँति अपने शिव-पूजन में लीन हो गया।
एक दिन दोनों भ्राता प्रदेश में भ्रमण कर रहे थे। मार्ग में उन्होंने अनेक गन्धर्व कन्याओं को क्रीड़ा करते हुये देखा। उन्हें देखकर कन्याओं की दिशा में न जाकर शुचिव्रत उसी स्थान पर बैठ गया। किन्तु राजपुत्र धर्म अकेला ही उन गन्धर्व कन्याओं के मध्य पहुँच गया। उनमें से एक अत्यन्त सुन्दर गन्धर्व कन्या राजपुत्र के रूप पर मोहित हो गयी तथा उसके निकट जाकर अपनी सखियों से बोली – ‘हे सखियों! इस वन के समीप ही जो एक अन्य वन है उसमें नाना प्रकार के सुन्दर पुष्प खिले हैं, वह दृश्य अत्यन्त मनोहारी है, तुम सभी उसकी शोभा का आनन्द लेकर आओ, मेरे पैरों में अत्यन्त पीड़ा हो रही है, मैं यहीं थोड़ा विश्राम कर लेती हूँ।’
यह सुनकर सभी सखियाँ उस वन की ओर चली गयीं तथा वह अकेली गन्धर्व कन्या उस राजकुमार को निहारने लगी। राजपुत्र भी उस कन्या के सौन्दर्य पर मन्त्रमुग्ध होकर कामुक दृष्टि से उसे देखने लगा। कन्या ने उससे पूछा – ‘आप कौन हैं? आपका नाम क्या है? आप किस राजा के पुत्र हैं तथा कहाँ निवास करते हैं?’
राजपुत्र ने कहा – ‘मैं विदर्भ नरेश का पुत्र हूँ, आप अपना भी तो परिचय दें।’ कन्या बोली – ‘मैं बिद्रविक गन्धर्व की पुत्री हूँ, मेरा नाम अंशुमति है। मैं आपकी कामना जान चुकी हूँ। आपका मन मयूर मुझपर मोहित हो चुका है। विधाता ने ही हम दोनों के मिलन का विधान रचा है।’ इतना कहते हुये उस गन्धर्व कन्या ने अपना मोतियों का हार राजकुमार को पहना दिया।
राजकुमार सकुचाते हुये बोला – ‘प्रिये! मुझे आपका यह प्रेम प्रस्ताव स्वीकार तो है, किन्तु मैं अत्यन्त निर्धनता में जीवन निर्वाह कर रहा हूँ।’ इतना सुनते ही उस कन्या ने कहा – ‘प्रियवर! आप निश्चिन्त रहें, मुझे आपकी समस्या का समाधान ज्ञात है, अभी आप घर लौट जायें, शीघ्र ही आपके कष्टों का अन्त होने वाला है।’
यह कहते हुये वह कन्या अपनी सखियों के समीप चली गयी। तदुपरान्त राजकुमार भी अपने घर आ गया तथा उसने यह समस्त प्रकरण अपने भ्राता शुचिव्रत को बताया। इस घटनाक्रम के तीसरे दिन राजपुत्र धर्म अपने भ्राता शुचिव्रत सहित उसी वन में पुनः पहुँचा। कुछ समय उपरान्त ही वहाँ पर गन्धर्वराज अपनी कन्या को लेकर पधारते हैं।
गन्धर्वराज बोले – ‘मैं भगवान शिव के दर्शन करने हेतु कैलाश पर्वत पर गया था। शिव जी ने मुझे बताया कि, हे गन्धर्वराज! धर्मगुप्त नाम का एक राजपुत्र है जो वर्तमान में घोर दरिद्र एवं निर्धन हो गया है, उसके शत्रुओं ने उसे राज्य से निष्कासित कर दिया है। वह मेरा अनन्य भक्त है, तुम पुनः राज्य प्राप्त करने में उसकी सहायता करो। अतः भोलेनाथ की आज्ञा से मैं यहाँ उपस्थित हुआ हूँ। मैं अपनी कन्या को भी लाया हूँ, यह आपसे विवाह की इच्छुक है। आप इसे स्वीकार करें मैं आपको पुनः राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित होने में आपकी सहायता करूँगा।’
तदुपरान्त राजकुमार धर्मगुप्त ने उस गन्धर्व कन्या से विवाह कर लिया। गन्धर्वराज ने अपनी कन्या के विवाह में अमूल्य धन-सम्पदा आदि प्रदान की, जिसे प्राप्त कर राजकुमार धर्म अति प्रसन्न हुआ। तदनन्तर अपने ससुर की सहायता से उसे उसका राज्य भी पुनः प्राप्त हो गया तथा वह सुखपूर्वक शासन करते हुये उत्तम जीवन व्यतीत करने लगा। इस प्रकार भगवान शिव की कृपा से उस ब्राह्मणी के दोनों पुत्रों का जीवन धन-धान्य एवं सुख-समृद्धि से परिपूर्ण हो गया।”