शरद पूर्णिमा व्रत सम्पूर्ण कथा
एक समय की बात है, किसी गाँव में एक साहूकार रहता था जिसकी दो बेटियाँ थीं। दोनों बहनें पूर्णिमा का व्रत करती थीं। हालाँकि, दोनों के विचार, व्रत के विषय में भिन्न-भिन्न थे। बड़ी बहन अत्यन्त ही पवित्र एवं धार्मिक थी तथा पूर्ण श्रद्धा सहित शरद पूर्णिमा व्रत करती थी। वह सन्ध्याकाल में भगवान चन्द्रमा को अर्घ्य अर्पण करने के पश्चात् अपना व्रत सम्पन्न करती थी तथा कभी भी सम्पूर्ण व्रत किये बिना मध्य में अपना व्रत नहीं तोड़ती थी। दूसरी ओर, छोटी बहन कभी भी व्रत करने के लिये अत्यधिक उत्सुक नहीं थी, अपितु नाम मात्र के लिये व्रत का पालन करती थी। वह अपना व्रत सम्पन्न किये बिना ही भँग कर देती थी।
कालान्तर में वे दोनों बहनें बड़ी हो गयीं तथा साहूकार ने उन दोनों बहनों का विवाह कर दिया। बड़ी बहन ने स्वस्थ शिशुओं को जन्म दिया। परन्तु, छोटी बहन के कोई सन्तान नहीं थी। उसके सभी शिशु जन्म लेते ही मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे। छोटी बहन अत्यन्त उदास थी तथा अपने दुखों का समाधान खोजने के लिये वह एक सन्त के समक्ष गयी तथा अपने दुर्भाग्य के विषय में उन्हें बताया। सन्त ने उसके दुखों एवं दुर्भाग्य का कारण समझा तथा उसे बताया कि, वह बिना किसी रुचि एवं भक्ति के पूर्णिमा का व्रत कर रही थी, जिसके कारण उसके जीवन में दुर्भाग्य का आगमन हुआ है। सन्त ने उसे सलाह दी कि, यदि वह पूर्ण श्रद्धा एवं समर्पण सहित व्रत का पालन करोगी, तो भगवान चन्द्रमा की कृपा से उसका अशुभ समय समाप्त हो जायेगा।
छोटी बहन को अपनी त्रुटि का अनुभव हुआ तथा उसने आगामी शरद पूर्णिमा का व्रत पूर्ण श्रद्धा एवं विधि-विधान से किया। पूर्णिमा पर अपने तप एवं अनुष्ठान के कारण, उसने एक शिशु को जन्म दिया, किन्तु दुर्भाग्यवश यह शिशु भी जन्म के पश्चात् तुरन्त मृत्यु की गोद में समा गया।
छोटी बहन को यह ज्ञात था कि, उसकी बड़ी बहन को भगवान चन्द्रमा का आशीर्वाद प्राप्त है तथा उसकी बहन, उसके शिशु को पुनः जीवित कर सकती है। इसीलिये, छोटी बहन ने एक योजना बनायी तथा अपने शिशु के मृत शरीर को एक कपड़े से ढककर एक छोटी सी शैया पर लिटा दिया। तत्पश्चात् उसने अपनी बड़ी बहन को अपने घर आमन्त्रित किया और उसे उसी बिस्तर पर बैठने का आग्रह किया, जिस पर शिशु का शव पड़ा था। जैसे ही बड़ी बहन शैया पर बैठने वाली थी, उसी समय उसके वस्त्र उस मृत शिशु को स्पर्श हो गये तथा उसके प्रभाव से शिशु जीवित होकर रुदन करने लगा। बड़ी बहन आश्चर्यचकित हो गयी तथा अपनी छोटी बहन को इतनी लापरवाही से शिशु को शैया पर लिटाने के लिये डाँटने लगी। उस समय छोटी बहन ने अपनी बड़ी बहन को बताया कि, जन्म के समय ही शिशु की मृत्यु हो गयी थी तथा उसकी बड़ी बहन के स्पर्श से शिशु पुनः जीवित हो गया। यह केवल भगवान चन्द्रमा की कृपा एवं पूर्णिमा व्रत की शक्ति का ही प्रभाव था।
उस दिन से शरद पूर्णिमा पर व्रत पालन करने की परम्परा आरम्भ हो गयी। धीरे-धीरे शरद पूर्णिमा का व्रत लोकप्रिय हो गया तथा लोग पूर्ण अनुष्ठान के साथ इस पर्व को मनाने लगे।