गणेश चतुर्थी

गणेश चतुर्थी व्रत सम्पूर्ण कथा

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भगवान शिव  ने कहा – “आप सभी इस कथा का ध्यानपूर्वक श्रवण करें। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को गणेश जी के इस शुभफलप्रदायक व्रत का पालन करना चाहिये। पूर्ण भक्तिभाव से इस व्रत का पालन करने वाले मनुष्य समस्त कष्टों से मुक्त हो जाते हैं। यह व्रत सघन वन में, प्रतिकूल परिस्थितियों में, न्यायिक विवादों एवं कचहरी आदि से सम्बन्धित कार्यों में सफलता प्रदान करता है। गणेश जी को यह व्रत अत्यन्त प्रिय है।”

सनत्कुमार जी ने जिज्ञासा प्रकट की – “हे भगवन! पूर्वकाल में किस ने इस व्रत का पालन किया था? भूलोक पर यह व्रत किस प्रकार प्रचलित हुआ? कृपया विस्तारपूर्वक वर्णन करें।”

भगवान शिव ने कहा – “सर्वप्रथम इस व्रत का पालन श्रीकृष्ण ने उस समय किया था जब उनपर चोरी मिथ्या आरोप लगा था। चोरी के दोष से मुक्ति प्राप्त करने हेतु देवर्षि नारद के निर्देश पर श्रीकृष्ण जी ने यह व्रत किया था।”

सनत्कुमार ने पूछा – “हे प्रभो! भगवान कृष्ण तो स्वयं सृष्टि के सृजनकर्ता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता हैं, अतः उनपर मिथ्या दोष लगाना कैसा सम्भव है? कृपा करके इससे सम्बन्धित कथा का वर्णन कीजिये।”

भगवान शिव बोले – “पूर्वकाल में मगध के राजा जरासन्ध के बारम्बार आक्रमण करने के कारण अपनी प्रजा की रक्षा हेतु भगवान कृष्ण ने स्वर्ण की द्वारिकापुरी का निर्माण करवाया एवं अपनी रानियों, यादवों तथा प्रजा सहित निवास करने लगे। भव्य द्वारिका नगरी में प्रत्येक रानी के लिये महल, छप्पन करोड़ यादवों के लिये भवन तथा प्रत्येक वर्ण के व्यक्ति हेतु आवास की व्यवस्था की गयी। समस्त प्रजा वहाँ सुखपूर्वक निवास कर रही थी। द्वारिकापुरी में ही उग्र नामक एक यादव निवास करता था। उग्र के दो पुत्र हुये जिनका नाम सत्राजित एवं प्रसेनजित था। सत्राजित ने भगवान सूर्य को प्रसन्न करने हेतु समुद्र के तट पर अन्न आदि का त्याग कर कठिन तपस्या की। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान सूर्य उसके समक्ष प्रकट हुये एवं बोले – ‘हे सत्राजित! हम तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हैं, तुम्हारी पूजा-अर्चना से हम सन्तुष्ट हुये, अतः हम तुम्हें देवताओं को भी दुर्लभ यह सुन्दर दिव्य मणि प्रदान करते हैं।?’ ऐसा कहते हुये भगवान सूर्य ने अपने गले से एक मणि उतार कर सत्राजित को प्रदान कर दी। तदुपरान्त सूर्यदेव ने कहा – ‘हे सत्राजित! यह मणि प्रतिदिन चौबीस मन स्वर्ण प्रदान करती है। इसे धारण करते समय पवित्र रहना आवश्यक है। अपवित्र अवस्था में इस मणि को धारण करने से, धारण करने वाली की मृत्यु हो जाती है।’ ऐसा कहकर भगवान सूर्य वहाँ से अन्तर्धान हो गये।

मणि को धारण कर सत्राजित सूर्य के समान तेजवान प्रतीत होने लगा। उस मणि के तेज से प्रत्यक्षदर्शियों को लग रहा था कि साक्षात् भगवान सूर्य ही द्वारिका में चले आ रहे हों। समीप आने पर लोगों को ज्ञात हुआ कि यह तो सत्राजित है जिसने मणि धारण की हुयी है। उस दिव्य मणि को देखकर भगवान कृष्ण का मन भी लालायित हुआ किन्तु उन्होंने मणि को प्राप्त करने की इच्छा नहीं की। किन्तु सत्राजित को यह सन्देह हुआ कि श्रीकृष्ण उससे मणि न ले लें। उसने मणि अपने भ्राता प्रसेनजित को प्रदान कर दी एवं पवित्र रहकर धारण करने की चेतावनी भी दी।

एक समय प्रसेनजित उस मणि को धारण करके श्री कृष्ण के साथ वन में आखेट करने गया। अपवित्रता के कारण प्रसेनजित को एक सिंह ने मार दिया तथा मणि को लेकर भाग गया। उस सिंह को मणि लेकर जाते देख जाम्बवन्त ने देख लिया। जाम्बवन्त ने सिंह का वध कर दिया तथा मणि अपनी पुत्री जाम्बवती को भेंट कर दी।

उधर श्रीकृष्ण द्वारिका लौटकर आये तो सभी ने उन्हें अकेला देखकर यही समझा कि मणि प्राप्त करने हेतु श्रीकृष्ण ने प्रसेनजित की हत्या कर दी है। इस मिथ्या दोषारोपण से श्रीकृष्ण अत्यन्त व्यथित हुये तथा अपने कुछ विशेष व्यक्तियों सहित नगर से बाहर चले गये। वन में सिंह द्वारा भक्षण किये हुये प्रसेनजित का शव प्राप्त हुआ। सिंह के पद चिन्हों का अनुसरण करते हुये श्रीकृष्ण उस स्थान पर पहुँचे जहाँ जाम्बवन्त ने सिंह का वध किया था। वहाँ से रक्त की बूँदों का अनुसार करते हुये कृष्ण जी जाम्बवन्त की गुफा तक पहुँच गये।

श्रीकृष्ण ने उस गुफा में घुसकर देखा तो वह अत्यन्त विशाल एवं भयङ्कर थी। चारों ओर घोर अन्धकार था। अतः शेष व्यक्तियों को गुफा के द्वार पर छोड़कर कृष्ण जी गुफा में 400 कोस तक अन्दर चले गये। वहाँ उन्हें एक अत्यन्त सुन्दर महल दिखाई दिया जिसमें जाम्बवन्त का पुत्र एक सुन्दर पालने में झूल रहा था तथा उस पालने में लटकन के रूप में एक दिव्य मणिरत्न लटक रहा था। कृष्ण उस रत्न को लेने हेतु उस बालक के पालने के समीप गये। वहाँ एक रूपवती, कमलनयनी कन्या उस पालने को झूला रही थी। उस युवती के सौन्दर्य का दर्शन करके श्रीकृष्ण भी विस्मित हो गये। वह कन्या उस बालक से कह रही थी – ‘अरे प्यारे! तुम क्यों रुदन कर रहे हो? देखो यह कितनी प्यारी स्यमन्तक मणि पिताजी ने तुम्हें खेलने हेतु दी है, प्रसेनजित को सिंह ने मारा तदुपरान्त सिंह को मार कर पिताजी यह मणि हमारे लिये लेकर आये हैं।’

तभी सहसा ही उसकी दृष्टि भगवान श्रीकृष्ण पर पड़ी। वह कन्या बोली – ‘आप जो कोई भी हैं, मेरे पिता जी के आने से पूर्व यहाँ से प्रस्थान कर जायें। अन्यथा परिणाम उचित नहीं होगा।’ यह सुनकर भगवान कृष्ण हँसते हुये शङ्ख वादन करने लगे। शङ्ख की ध्वनि सुनकर ऋक्षराज जाम्बवन्त वहाँ उपस्थित हो गये तथा दोनों में भीषण युद्ध आरम्भ हो गया। भगवान कृष्ण एवं ऋक्षराज जाम्बवन्त के मध्य 21 दिवस तक निरन्तर युद्ध होता रहा। तदुपरान्त कृष्ण जी ने उन्हें परास्त कर दिया। उस समय त्रेतायुग की लीलाओं का स्मरण कर जाम्बवन्त ने भगवान श्रीकृष्ण के वास्तविक स्वरूप को पहचान लिया। जाम्बवन्त जी बोले – ‘मुझे देवराक्षसनागगन्धर्व तथा प्रेत या पिशाच आदि कोई भी परास्त नहीं कर सकता। हे देवाधिदेव! आपने मुझे पराजित करके यह सिद्ध किया है कि आप कोई अन्य नहीं अपितु देवों के अधिपति भगवान विष्णु हैं। आपके अतिरिक्त किसी में इतना बल एवं तेज नहीं हो सकता। आप त्रेतायुग के वही धनुर्धर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम हैं, जिन्होंने अपने बाणों के बल से लङ्का पर विजय प्राप्त की थी। आपको बारम्बार प्रणाम है।’

जाम्बवन्त द्वारा पहचाने जाने पर श्रीकृष्ण ने उनसे कहा – ‘हे जाम्बवन्त! इस मणि के कारण मुझ पर चोरी एवं हत्या का मिथ्या आरोप लगा है। अतः में मणि को खोजते हुये इस गुफा में आया हूँ।’ भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुनकर जाम्बवन्त ने अपनी कन्या जाम्बवती का विवाह श्रीकृष्ण जी से कर दिया तथा दहेज में वह मणि भेंट कर दी। जाम्बवती सहित मणि लेकर भगवान कृष्ण प्रसन्नतापूर्वक द्वारिका लौट आये। श्री कृष्ण यादवों की राज्यसभा में उपस्थित हुये तथा मणि से सम्बन्धित सम्पूर्ण वृत्तान्त विस्तारपूर्वक सभी को सुनाया तथा सभा में उपस्थित सत्राजित को मणि प्रदान कर दी। इस प्रकार भगवान कृष्ण मिथ्या दोष से मुक्त हो गये। सत्राजित मणि प्राप्त कर अत्यन्त लज्जित हुआ तथा उसने अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह भगवान श्रीकृष्ण से कर दिया।

कालान्तर में शतधन्वाअक्रूर आदि अन्य यादव मणि प्राप्त करने हेतु सत्राजित के प्रति द्वेष रखने लगे। एक समय श्रीकृष्ण द्वारिका से कहीं बाहर गये हुये थे, उसी समय शतधन्वा ने सत्राजित की हत्या करके वह मणि चुरा ली। श्री कृष्ण के लौटने पर सत्यभामा ने उन्हें इस विषय में बताया। नगर में पुनः श्रीकृष्ण के विषय में आरोप-प्रत्यारोप होने लगे। भगवान कृष्ण ने भ्राता बलदेव से कहा कि – ‘शतधन्वा ने सत्राजित की हत्या करके मणि चुरा ली है, वह मणि हमारे योग्य है।’

शतधन्वा को जब ज्ञात हुआ कि स्वयं बलदेव जी मणि खोज रहे हैं तो भयभीत होकर उसने मणि अक्रूर जी को दे दी स्वयं अश्व पर आरूढ़ होकर दक्षिण दिशा की ओर भाग गया। भगवान श्रीकृष्ण एवं बलराम जी ने रथ से शतधन्वा का पीछा किया। 100 कोस के उपरान्त शतधन्वा के अश्व का वध कर दिया, तब वह दौड़ने लगा। श्रीकृष्ण ने दौड़कर उसे पकड़ लिया एवं उसका वध कर दिया। कृष्ण ने बलदेव से कहा कि – ‘मणि इसके पास नहीं प्राप्त हुयी।’ बलराम जी इस पर क्रोधित तथा कृष्ण को कपटी आदि कहकर विदर्भ देश की ओर चले गये। कृष्ण जी रथ पर आरूढ़ होकर द्वारिका लौटकर आये। वहाँ लोग वही बातें करने लगे कि – ‘कृष्ण ने मणि के लोभ में अपने भ्राता बलराम को द्वारिका से निकाल दिया।’ आदि।

उधर अक्रूर तीर्थयात्रा करने हेतु द्वारिका से चल दिया। अक्रूर ने उस मणि से नित्य स्वर्ण प्राप्त करके सभी व्यक्तियों को दक्षिणा आदि प्रदान कर सन्तुष्ट किया। अक्रूर सदैव शुद्धतापूर्वक उस मणि को धारण करता था। मणि को लेकर वह जहाँ भी जाता वहाँ अकाल एवं आधी-व्याधियों का सङ्कट नहीं रहता था। यों तो भगवान कृष्ण को सबकुछ ज्ञात था किन्तु मनुष्य रूप में लीला करते हुये वह अत्यन्त चिन्तित हो रहे थे की – ‘मणि के कारण बलदाऊ भैया से मनमुटाव हुआ, नाना प्रकार के आरोप लगे। मैं इस कलङ्क का निवारण किस प्रकार करूँ?’

श्रीकृष्ण इस प्रकार सोच-विचार कर ही रहे थे कि वहाँ देवर्षि नारद आ गये। भगवान ने उन्हें नमस्कार कर, आदर-सत्कार किया तथा आसन प्रदान किया। आसन पर विराजमान होकर देवर्षि नारद ने पूछा – ‘हे भगवान! आपके श्रीमुख पर यह चिन्ता एवं व्यथा के भाव कैसे हैं? कृपया आप मुझसे सम्पूर्ण प्रकरण कहें।’

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – ‘हे देवर्षि नारद! मुझ पर बारम्बार मिथ्या दोषारोपण हो रहा है, मुझपर कोई न कोई कलङ्क लग रहा है, जिससे मुझे अत्यन्त खेद हो रहा है, अतः मैं आपकी शरण में हूँ, कृपया मुझे चिन्तामुक्त कीजिये।’ नारद जी ने कहा – ‘हे भगवन! आप पर जो कलङ्क लग रहा है उसका कारण मुझे ज्ञात है। अपने भादों शुक्ल चतुर्थी को चन्द्रमा का दर्शन किया है, इसीलिये आपको बारम्बार कलङ्कित होना पड़ रहा है।’ श्रीकृष्ण ने पूछा – ‘हे मुनिवर! चौथ के चन्द्रमा का दर्शन करने से कैसा दोष लगता है ? जबकि दूज के चन्द्रमा का दर्शन उत्तम फल प्रदान करने वाला माना जाता है।’ नारद जी ने उत्तर दिया – ‘हे प्रभो! स्वयं गणेश जी ने ही चन्द्रदेव को यह श्राप दिया था कि, आज के दिन जो लोग भी तुम्हारा दर्शन करेंगे उन्हें समाज में व्यर्थ ही कलङ्कित होना पड़ेगा।’ श्रीकृष्ण बोले – ‘हे मुनिश्रेष्ठ! अमृत वर्षा करने वाले चन्द्रमा को गणेश जी श्राप क्यों दिया? आप इस कथा का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये।’

नारद जी ने कहा – ‘प्राचीनकाल में ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश ने गणेश जी को अष्टसिद्धि तथा नवनिद्धि को पत्नी के रूप में प्रदान किया। प्रजापति ब्रह्मा ने शास्त्रोक्त विधि से गणेश जी का पूजन करके उन्हें प्रथम स्थान पर प्रतिष्ठित किया। ब्रह्मा जी ने कहा – ‘हे गज के समान मुख वाले! हे गणपति! हे लम्बोदर! हे वरदायक! हे संहारकर्ता गणेश जी! जो मनुष्य आपको श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक लड्डू अर्पित करके पूजन करेंगे, उनकी सभी विघ्न-बाधायें दूर हो जायेंगी तथा उन्हें दुर्लभ सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जायेंगी। हे गणपति! आपकी शक्ति से ही विष्णु जी पालन एवं शिव जी संहार करते हैं। आपकी स्तुति करने में मैं असमर्थ हूँ।’

ब्रह्मा जी के श्रीमुख से स्तुति सुनकर भगवान गणेश ने कहा – ‘हे सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी! मैं आपकी स्तुति से अत्यन्त प्रसन्न हूँ। आपकी जो इच्छा हो वर माँग लीजिये।’ ब्रह्मा जी ने कहा – ‘मुझे सृष्टि रचना में कोई बाधा न आये।’ गणेश जी ने कहा – ‘तथास्तु!’ इस प्रकार ब्रह्मा जी को वर प्रदान कर गणेश जी आकाशमार्ग से चन्द्रलोक पहुँच गये। चन्द्रमा को अपने रूप एवं सौन्दर्य पर अत्यधिक अभिमान था। गणेश जी को सूँड़, लम्बे कान, मोटा उदर एवं मूषक पर आरूढ़ देखकर चन्द्रमा हँसने लगा एवं उनके स्वरूप का उपहास करने लगा।

उस समय कुपित होकर भगवान गणेश ने चन्द्रमा को श्राप दिया कि – ‘आज से शुक्ल चतुर्थी के दिन कोई भी व्यक्ति तुम्हारी पापी मुख का दर्शन नहीं करेगा। जो व्यक्ति भूलवश भी तुम्हारे मुख को इस दिन देख लेगा, उस पर अवश्य ही कलङ्क लगेगा।’

नारद जी ने कहा – ‘हे कृष्ण! इस भयङ्कर श्राप को सुनकर सम्पूर्ण सृष्टि त्राहिमाम् करने लगी। चन्द्रमा का मुख मलीन हो गया एवं वह जल में प्रवेश कर गये। उसी दिन से चन्द्रमा जल में निवास करने लगे। देवऋषि एवं गन्धर्व आदि को इससे अत्यन्त दुखी हुये। इन्द्र सहित अन्य देवगण ब्रह्मलोक गये तथा ब्रह्मा जी से कहा – ‘गणेश जी ने चन्द्रमा को श्राप दे दिया है। कृपया कोई समाधान कीजिये।’ ब्रह्मा जी ने कहा – ‘गणेश जी का श्राप अकाट्य है, उसे न ही मैं तथा न ही कोई अन्य देवता काट सकता है। अतः आप सभी गणेश जी की शरण में ही जायें।’ देवताओं ने पूछा – ‘हे ब्रह्मा जी! गणेश जी को प्रकार प्रसन्न करने का कोई मार्ग बताने की कृपा करें।’

ब्रह्मा जी ने कहा – ‘गणेश जी का पूजन कृष्ण चतुर्थी की रात्रि में करना चाहिये। देशी घी के लड्डू, पकवान आदि बनाकर भोग लगाना चाहिये। स्वयं भी हलवा, पूरी, मिष्टान्न आदि का भोग लगाकर प्रसाद ग्रहण करना चाहिये। गणेश जी की स्वर्ण निर्मित मूर्ति ब्राह्मण को दान करनी चाहिये तथा यथाशक्ति दक्षिणा प्रदान करनी चाहिये।’

ब्रह्मा जी से पूजन, व्रत आदि की सम्पूर्ण विधि ज्ञात कर देवताओं ने देवगुरु बृहस्पति को चन्द्रमा के पास भेजा। उन्होंने ब्रह्मा जी द्वारा वर्णित गणेश पूजन की विधि चन्द्रमा को बतायी। चन्द्रमा ने पूर्ण विधि-विधान से भगवान गणेश का पूजन एवं व्रत किया। परिणामस्वरूप भगवान गणेश प्रसन्न हुये एवं चन्द्रमा के समक्ष प्रकट हो गये। गणेश जी को अपने सम्मुख साक्षात् देख चन्द्रमा उनकी स्तुति करने लगे। चन्द्रमा ने कहा – ‘हे प्रभो! आप सर्वव्यापी एवं अन्तर्यामी हैं, हे लम्बोदर, हे वक्रतुण्ड, मैंने अभिमानवश अपना उपहास किया था। उस अशिष्ट व्यवहार के लिये मैं आपसे क्षमा-याचना करता हूँ। प्रसन्न होकर मुझपर कृपा करें।’

चन्द्रदेव के इस प्रकार स्तुति करने पर गणेश जी हँसे एवं मेघों के समान गर्जना करते हुये बोले – ‘हे चन्द्र! मैं तुम से अत्यन्त प्रसन्न हूँ, माँगो तुम्हें क्या वरदान चाहिये?’ चन्द्रमा ने कहा – ‘हे गणेश्वर! सभी पूर्व की भाँति मेरा दर्शन एवं सम्मान करने लगें तथा आपकी कृपा से मेरे समस्त पाप नष्ट हो जायें, ऐसा करने की कृपा करें।’ गणेश जी बोले – ‘हे चन्द्र! मैं तुम्हें इसके अतिरिक्त कोई अन्य वरदान दे सकता हूँ, किन्तु यह नहीं।’ गणेश जी के श्रीमुख से इन वचनों को सुनकर ब्रह्मादि देवतागण भी भयभीत हो गये तथा प्रार्थना करने लगे। देवतागण गणेश जी से निवेदन करते हुये बोले – ‘हे गजानन! कृपा करके आप चन्द्रमा को श्रापमुक्त कर दें। हम सभी आपसे यह वर प्रदान करने की प्रार्थना करते हैं। आप ब्रह्मा जी की महानता का विचार करते हुये चन्द्रमा को श्रापमुक्त करने की कृपा करें।’

देवताओं की प्रार्थना सुनकर गणेश जी ने सम्मानपूर्वक कहा कि – ‘आप सभी मेरे भक्तगण हैं! अतः मैं आपको मनोवाञ्छित वर प्रदान करता हूँ। जो मनुष्य भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को चन्द्र दर्शन करेंगे, उन्हें मिथ्या कलङ्क तो अवश्य लगेगा, यह निश्चित है। किन्तु माह के आरम्भ में शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन जो मनुष्य प्रति माह निरन्तर तुम्हारा दर्शन करते रहेंगे, उन्हें भादों सुदी चौथ के चन्द्र दर्शन का मिथ्या दोष नहीं लगेगा। किन्तु दूज के चन्द्र दर्शन न करने वाले जो भाद्र शुक्ल चतुर्थी को तुम्हारा दर्शन करेंगे उन्हें एक वर्ष के अन्दर ही मिथ्या कलङ्क भोगना पड़ेगा।”

नारद जी ने कहा – ‘हे नन्दनन्दन! उसी समय से द्वितीया के दिन सभी आदर सहित चन्द्रमा के दर्शन करने लगे। गणेश जी ने स्वयं दूज के चन्द्र दर्शन करने वाले की विशेषता का वर्णन किया है।’ तदुपरान्त चन्द्रमा ने गणेश जी से पुनः प्रश्न किया – ‘हे गणपति! यदि भूलवश ऐसा हो जाये तो आप किस प्रकार प्रसन्न होंगे, कृपा करके बतायें।’

श्री गणेश जी ने कहा – ‘कृष्ण पक्ष की प्रत्येक चतुर्थी को जो मनुष्य लड्डू का भोग लगाकर मेरी पूजा-अर्चना करेंगे, विधिपूर्वक रोहिणी सहित तुम्हारा पूजन करेंगे तथा मेरी स्वर्ण की मूर्ति का पूजन कर कथा श्रवण करेंगे, ब्राह्मणों को भोजन एवं दान-दक्षिणा आदि प्रदान करेंगे, मैं सदैव उनके दुखों को नष्ट करता रहूँगा। यदि स्वर्ण की मूर्ति बनवाने का सामर्थ्य न हो तो, मिट्टी की सुन्दर मूर्ति बनवायें तथा विभिन्न प्रकार के सुगन्धित पुष्पों से मेरा पूजन करें। तदुपरान्त प्रसन्नतापूर्वक ब्राह्मण को भोजन कराकर तथा विधिपूर्वक पूजन करके कथा श्रवण कर निम्नोक्त विधि द्वारा मूर्ति ब्राह्मण को समर्पित करें – ‘

सर्वप्रथम प्रार्थना करें – ‘हे गणपतिजी! आप हमारे इस दान से प्रसन्न हों तथा सदैव प्रतिक्षण, हे प्रभो! आप हमारे समस्त कार्यों को निर्विघ्न रूप से पूर्ण करें। आप हमें मान-सम्मान, उन्नति, धन-सम्पत्ति तथा पुत्र-पौत्रादि प्रदान करें। हमारे कुल में सदैव योग्य, गुणी एवं आपके भक्त पुत्र उत्पन्न हों।’ तदुपरान्त ब्राह्मण को दान करें। लड्डू, खीर, मालपुआ आदि मिष्टान्न से ब्राह्मण को भोजन करायें। तदनन्तर स्वयं भोजन ग्रहण करें। जो इस प्रकार व्रत का पालन एवं पूजन करेंगे मैं उनको सदैव प्रत्येक क्षेत्र में विजय, कार्य में सफलता, धन-धान्य एवं सन्तान सुख प्रदान करता रहूँगा।’ इस प्रकार कहकर गणेश जी अन्तर्धान हो गये।

नारद जी ने कहा – ‘हे श्रीकृष्ण! आप भी इस व्रत का पालन कीजिये। इस व्रत के प्रभाव से आप कलङ्क मुक्त हो जायेंगे।’ तब श्रीकृष्ण ने देवर्षि नारद के निर्देशानुसार व्रत एवं अनुष्ठान किया जिसके प्रभाव से श्रीकृष्ण पर लगा मिथ्या कलङ्क मिट गया।

नारद जी कहते हैं – ‘जो स्यमन्तक मणि की कथा को श्रवण करेंगे तथा चन्द्रमा की कथा सुनेंगे, उन्हें भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के चन्द्रमा के दर्शन का दोष नहीं लगेगा। मानसिक समस्या अथवा संशय उत्पन्न होने पर अथवा भूलवश भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी का दर्शन हो जाने पर इस कथा का पाठ एवं श्रवण अवश्य करना चाहिये। श्रीकृष्ण ने भगवान गणेश का व्रत एवं पूजन करके उन्हें प्रसन्न किया था। मनुष्यों पर किसी भी प्रकार का सङ्कट आने पर इस व्रत को करने से उस सङ्कट का निवारण होता है तथा सभी मनोरथ सिद्ध होते हैं। सङ्कटनाशक एवं विघ्नविनाशक भगवान गणेश के प्रसन्न होने से संसार में समस्त पदार्थों की प्राप्ति सरलता से हो जाती है।'”

॥इति श्री गणेश चतुर्थी व्रत कथा सम्पूर्णः॥

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