व्रत कथायें (Vrat Katha)

हनुमान जयंती व्रत सम्पूर्ण कथा

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एक समय की बात है महर्षि अंगिरा किसी कारण वश स्वर्गलोक में देवराज इंद्र से भेट करने पहुँचे। देवराज इंद्र उस समय दरबार को संबोधित कर रहे थे। महर्षि अंगिरा को वँहा आता देख देवराज इंद्र तुरंत अपने स्थान से उठ कर महर्षि का स्वागत करने पहुंचे। महर्षि का उचित स्वागत सत्कार करने के बाद उन्हें उचित आसान दे कर बिराजमान किआ और उनके मनोरंजन हेतु अपनी सबसे प्रिय अप्सराओं में से एक पूँजीक्ष्थला को बुलाया गया। जबकि महर्षि को इस नृत्य में कोई रुचि नहीं थी, और महर्षि अपने प्रभु के ध्यान में मग्न हो गये। नृत्य की समाप्ति पर इंद्र ने महर्षि से नृत्य के विषय मे उनकी प्रसंसा पाने हेतु पूछा। तब महर्षि मौन रहे और कुछ क्षण प्रश्चात बोले –

महर्षि अंगिरा – “हे देवराज, मुजे आपके इस नृत्य में कोई रुचि नहीं थीं। में केवल अपने प्रभु के ध्यान में लीन था।”

महर्षि अंगिरा के शब्द सुन अप्सरा और इंद्र लज्जा से शर्मसार हो गये। अप्सरा पूँजीक्ष्थला को महर्षि अंगिरा के शब्द बाणों की तरह चुभने लगे। वह अपने भाव पर नियंत्रण ना रख सकी और बोल पड़ी –

पूँजीक्ष्थला – “है मुनि, आपने सत्य ही कहा। आप कहाँ सौंदर्य की गरिमा को जान सकते है। जो केवल आश्रम में रह कर अपना जीवन व्यतीत करते है उन्हें कहा पता स्वर्गलोक का वैभव क्या है। इन्हें स्वर्गलोक में आना ही नही चाहिये था मेने व्यर्थ ही इतना सुंदर नृत्य इनको प्रस्तुत किया। इन्हें तो पृथ्वीलोक में रह कर आश्रम के आसपास रहते वन के वानरों का ही नाच देखना शोभा देता है।”

अप्सरा की बात सुन महर्षि अंगिरा अत्यंत कुपित हो उठे और अप्सरा को श्राप देते हुए बोले –

महर्षि अंगिरा – “हे मूर्ख अप्सरा, तुम्हे क्या पता असली वैभव क्या होता है। तुमने जिस प्रकार पृथ्विलोक और वानर जाती का अपमान किया है तुम अभी इसी क्षण पृथ्विलोक में एक वानर कुल में जन्म लोगी।”

महर्षि के श्राप से भयभीत होकर अप्सरा उसी क्षण महर्षि के चरणों मे गिर पड़ी और अपने कुवचनों की क्षमा मांगने लगी। महर्षि बड़े ही दयालु थे। अप्सरा की दीन याचना सुन उन्होंने अप्सरा को यह आशीर्वाद भी दिया। त्रेता युग मे  तुम्हारे गर्भ से एक तेजस्वी बालक जन्म लेगा जिस पर स्वयं महादेव की कृपा होगी और वो प्रभु श्री विष्णु के सप्तम अवतार श्री राम का परम भक्त होगा। महर्षि के वचन सुन अप्सरा तृप्त हुई और महर्षि के कथनानुसार वह कुंजार (उस समय पृथ्विलोक पर वानरों के राजा) के यँहा पुत्री रूप में जन्म लिया। आगे जाके वह उनका विवाह सुमेर पर्वत के वानर राज केसरी से हुआ। महर्षि अंगिरा के आशीर्वाद से चैत्र माह की पूर्णिमा तिथि पर उन्हें एक तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई जिनका नामकरण उन्होंने मारुति रखा था। आगे जाके वंही श्री हनुमान नाम से प्रसिद्ध हुए।

प्रभु श्री हनुमाजी के जन्मोत्सव की और एक कथा बहोत प्रचलित मानी जाती है। यह उस समय की बात है जब राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति हेतु “पुत्रकामेष्टि” यज्ञ करवाया था। यज्ञ की समाप्ति पर हवनकुंड में से एक दिव्य पुरुष हाथ में एक स्वर्ण कटोरा लिए प्रगट हुए। उस कटोरों में खीर का प्रसाद था। रूशी गन की आज्ञा से उन्होंने वह प्रसाद अपनी तीनो रानिओ में बाँट दिया। जब सबसे छोटी रानी सुमित्रा सबसे पहले प्रसाद ग्रहण करने जा रही थी तब एक गरुड़ आकर अपनी चोंच में प्रसाद ग्रहण करके उड़ गया। सभी उपस्थित गन यह दृश्य देखते ही रह गए। वह गरुड़ आकाश में उड़ रहा था तब उसे एक तपस्विनी का उच्च स्वर में मंत्रोच्चार सुनाई दिया। उस मंत्रोच्चार के प्रभाव से उसने अपनी चोंच में भरा हुआ प्रसाद उसी क्षण निचे गिरा दिया। वह प्रसाद फिर तपस्या करती हुई तपस्विनी के समक्ष गिरा। प्रसाद के अपने समक्ष गिराने से वह तपस्विनी जागृत अवस्था में आई और अपने समक्ष प्रसाद पड़ा हुआ देख उसने अपनी तपस्या को सफल मान कर वही प्रसाद ग्रहण कर लिया। अतः प्रसाद के फल स्वरुप एक तेजस्वी बालक की प्राप्ति हुई। वह तपस्वनी कोई और नहीं माता अंजना ही थी। तो इस प्रकार प्रभु श्री हनुमाजी का जन्म हुआ।

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